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दमोह सहकारी बैंक घोटाले में नई चालबाज़ी: आरोपी बना जांच अधिकारी, महाप्रबंधक ने बनाया जांच का मज़ाक!

अनुपम खरे की चाल – अशोक दुबे पर आरोप भी, और जांच भी उसी से! क्या बैंकिंग घोटाले अब खुद को ही क्लीन चिट देंगे.?
जब भरोसे का ताला उसी की चाबी से टूटा हो, तो चोट सिर्फ चोरी की नहीं होती — विश्वास की होती है। दमोह में जिला सहकारी केंद्रीय बैंक का मामला अब महज़ एक घोटाले से कहीं आगे निकल चुका है। यहां कानून की किताब बंद कर, खुद सिस्टम ने तय कर लिया है कि कौन पीड़ित है, कौन आरोपी और कौन उसका जज। और ये सब एक ऐसे मंच पर हो रहा है, जहां न्याय को मंच के बाहर खड़ा कर दिया गया है — इंतज़ार करते हुए, कि शायद अब कोई उसे भी बुलाए।

दमोह सहकारी केंद्रीय बैंक के 4.14 करोड़ रुपये के बहुचर्चित लॉकर घोटाले में अब जांच नहीं, ‘जुगाड़ तंत्र’ देखने को मिल रहा है। जहां शिकायतकर्ता झांसी निवासी देवेंद्र कुमार जैन छह महीने से न्याय की उम्मीद में दर-दर भटकते रहे, वहीं बैंक के प्रभारी महाप्रबंधक अनुपम खरे ने ऐसा कदम उठा लिया है जो शायद भारतीय बैंकिंग इतिहास में मिसाल बन सकता है — घोटाले के आरोपी को ही जांच अधिकारी बना दिया गया है।

जी हां, जिन अशोक दुबे पर यह गंभीर आरोप है कि उन्होंने नियमों को ताक पर रखकर देवेंद्र के लॉकर को नीता जैन के साथ मिलकर खुलवाया और करोड़ों की पारिवारिक संपत्ति निकलवा दी — अब वही अशोक दुबे अपनी ही करतूत की जांच करेंगे। और जब इस विसंगति की ओर सवाल उठे, तो महाप्रबंधक अनुपम खरे ने पल्ला झाड़ते हुए नया दावा किया — “जांच तो दूसरे अशोक दुबे कर रहे हैं, जो माडियादौ ब्रांच में पदस्थ हैं।”

यह भी पढ़ें – दमोह बैंक घोटाला: ज़िंदा खाताधारक का लॉकर तोड़ करोड़ों की संपत्ति उड़ी, बैंक प्रबंधन पर गंभीर सवाल

लेकिन सच्चाई यह है कि माडियादौ ब्रांच में कोई अशोक दुबे नहीं है। वहां के प्रबंधक का नाम पारस यादव है। यानि या तो महाप्रबंधक झूठ बोल रहे हैं, या फिर पूरे मामले को जबरदस्त घुमाने की कोशिश कर रहे हैं।

इससे बड़ा सवाल और क्या हो सकता है — क्या अब बैंक खुद ही घोटाले करेंगे, फिर खुद ही जांच करेंगे, और फिर खुद को निर्दोष भी घोषित कर देंगे?

देवेंद्र जैन का आवेदन 20 दिसंबर 2024 को दिया गया था। छह महीने तक किसी ने कोई कार्रवाई नहीं की। न एफआईआर, न बयान, न दस्तावेज खंगाले गए। और जैसे ही मीडिया ने इस मामले को उठाया, अचानक ‘जांच की बिजली’ गिर गई, और वो भी उसी शाखा प्रबंधक के सिर, जिसने कथित रूप से घोटाला किया था।

क्या यह सिर्फ लापरवाही है, या एक रची-बसी साजिश, जिसमें घोटाले को रफा-दफा करने का खाका महीनों पहले ही तैयार कर लिया गया था? कलेक्टर और एसपी से लेकर महाप्रबंधक तक, सबकी भूमिका अब सवालों के घेरे में है। देवेंद्र जैन का सवाल अब एक अकेले नागरिक का नहीं — सिस्टम पर विश्वास रखने वाले हर उस आम आदमी का है, जो सोचता है कि बैंक उसका पैसा नहीं, उसका भरोसा संभालेगा।

लेकिन दमोह में तो ये भरोसा ही सबसे सस्ते दाम पर नीलाम होता दिख रहा है — एक लॉकर खोलने की कीमत, एक शिकायत को छह महीने तक दबाए रखने की कीमत, और सबसे बढ़कर — एक आरोपी को ही जज बनाने की कीमत।

इस मामले पर सौरभ जैन उप रजिस्ट्रार (सहकारिता) का कहना है जो भी दोषी होगा किसी भी हाल में नहीं छोड़ा जाएगा, जांच निष्पक्ष होगी, और कार्रवाई होगी।

इस पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जांच एजेंसी या आर्थिक अपराध शाखा (EOW) से जांच कराई जानी चाहिए। अगर आरोपी ही जांचकर्ता बनकर बैठ जाएगा, तो फिर ऐसी जांच का निष्कर्ष पहले से तय माना जाएगा।

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