कानून व्यवस्था सुधारने के नाम पर पुलिस कप्तान ने उलटा किया फेरबदल, तजुर्बेकार निरीक्षक हाशिए पर
दमोह जिले में पुलिस प्रशासन की कार्यशैली पर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। पुलिस अधीक्षक श्रुतकीर्ति सोमवंशी पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने कानून व्यवस्था सुधारने के नाम पर अनुभवहीनता को बढ़ावा दिया है, जिससे जिले की सुरक्षा व्यवस्था सवालों के घेरे में आ गई है। नियमों के विपरीत, निरीक्षक (टीआई) स्तर के अधिकारियों के बजाय उप निरीक्षक (एसआई) स्तर के अधिकारियों को महत्वपूर्ण थानों की कमान सौंपी गई है, जबकि अनुभवी निरीक्षकों को या तो लाइन अटैच कर दिया गया है या फिर उन्हें महत्वहीन शाखाओं में बैठा दिया गया है।
संवेदनशील थानों पर अनुभव को दरकिनार : यह चिंता का विषय है कि ये नियुक्तियां विशेष रूप से राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में की गई हैं। जबेरा और तेंदूखेड़ा थाना क्षेत्र, जो राज्यमंत्री धर्मेंद्र सिंह लोधी के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं, और हिंडोरिया थाना, जो दमोह सांसद राहुल सिंह लोधी का गृहनगर है, इन सभी स्थानों पर निरीक्षक स्तर के अधिकारियों की नियुक्ति अपेक्षित थी। हालांकि, इसके बजाय एसआई विकास चौहान (जबेरा), एसआई नीतेश जैन (तेंदूखेड़ा), और एसआई धर्मेंद्र गुर्जर (हिंडोरिया) को प्रभारी बना दिया गया है। इन नियुक्तियों से कई सवाल उठते हैं: क्या इन थानों पर कम अनुभवी अफसरों की तैनाती राजनीतिक समीकरणों को साधने का तरीका है, या फिर यह केवल प्रशासनिक लाचारी का परिणाम है?
अनुभवी निरीक्षक शाखाओं में, जनता असमंजस में : जिले के कई अनुभवी निरीक्षक जैसे अमित मिश्रा (सायबर सेल), अमित गौतम (कंट्रोल रूम), फेमिदा खान (लाइन), अंजली अग्निहोत्री (शिकायत शाखा), अमिता अग्निहोत्री (एसजेपीयू शाखा) जैसे पदों पर कार्यरत हैं, जिन्हें किसी थाने की कमान सौंपी जा सकती थी। उन्हें फील्ड पोस्टिंग से दूर रखना यह दर्शाता है कि दमोह में पुलिसिंग की प्राथमिकताएं अब कानून व्यवस्था से अधिक प्रशासनिक समीकरणों और राजनीतिक समीपता से तय हो रही हैं।
पुलिस कप्तान की प्राथमिकता: योग्यता या ‘टीम’? : इस फैसले से एक बड़ा सवाल उभरकर सामने आया है कि आखिर दमोह के एसपी योग्यता और प्रशासनिक क्षमता के आधार पर पोस्टिंग कर रहे हैं या फिर निजी पसंद-नापसंद और आंतरिक समीकरणों के आधार पर? थानों पर एसआई की तैनाती न केवल पुलिसिंग की गुणवत्ता को कमजोर करती है, बल्कि जनता के साथ न्याय प्रक्रिया को भी प्रभावित करती है, क्योंकि निरीक्षक रैंक के अफसरों को न केवल अधिक अनुभव होता है, बल्कि वे कानून के तहत अधिक जिम्मेदारियां भी निभा सकते हैं।
पिछली आलोचनाओं को बल मिला : दमोह जिले में पहले से ही पुलिस और अपराधियों के बीच गठजोड़, वर्षों से जमे अफसरों की तैनाती, और एसपी कार्यालय की कार्यप्रणाली को लेकर तीखी आलोचना हो चुकी है। अब यह नया घटनाक्रम उस आलोचना को और बल देता है, जिससे यह सवाल उठ रहा है कि क्या पुलिस अधीक्षक फील्ड पोस्टिंग पर फैसले लेने में स्वतंत्र हैं या फिर राजनीतिक दबाव काम कर रहा है।
जनता की नजरें मुख्यमंत्री पर : इन तमाम नियुक्तियों और बढ़ते अपराधों के बीच जनता का सवाल अब साफ है — जब थानों की कमान राजनीतिक समीकरणों और अनुभवहीनता के आधार पर दी जाएगी, तब आमजन की सुरक्षा और न्याय की उम्मीद किससे की जाए? और इन सबके बीच मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की चुप्पी अब और अधिक असहज कर रही है। जब अनुभवी अफसरों को किनारे कर कम अनुभवी उप निरीक्षकों को थानों की कमान दी जा रही हो, तो यह स्पष्ट संकेत है कि या तो फील्ड पोस्टिंग से अफसरों को दूर रखकर प्रभावहीन बनाया जा रहा है, या फिर व्यवस्था में कुछ छिपाने और संभालने की मजबूरी है।